कविता
प्राजक्ता का ललित सुमन
बिखर रही है रजत चाँदनी
छिटकाती यौवन मतवाला,
प्राजक्ता के ललित सुमन का
खिला यामिनी गात निराला।
कोमल, सुरभित,श्वेत वर्णीय
केसर देह सहज मन भायी,
तम से घिरी निशा ने हँसकर
उन्मादित हो प्रीत लुटायी।
गोद निशा की नयन खोलकर
दसों दिशा सौरभ बिखराता,
मलय पवन की नरमी पाकर
अतुलित रूप निखर मुस्काता।
वेश वियोगी का रख भ्रमरा
कपटी भाव लिए मँडराता,
अधर पान को व्याकुल निष्ठुर
छल करता मृदु राग सुनाता।
उदित भानु की स्वर्णिम ऊषा
पतझड़ का अहसास दिलाती,
झुलस देह भूतल पर बिखरी
मिल माटी विलीन हो जाती।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर