कविता
बूढ़ा बरगद
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बूढ़ा बरगद ठूँठ बना अब
याद करे बीता कल अपना,
कहाँ खो गई भोर सुहानी
बेबस मन अब देखे सपना।
कभी घनी थीं शाखा मेरी
बैठ परिंदे गीत सुनाते,
कितने पथिक राह में थककर
शीतल छाँव तले सुख पाते।
कितने खग ने तिनके लाकर
नीड बनाकर किया बसेरा,
आज घोंसले रिक्त पड़े हैं
घने विटप ने खग को घेरा।
साथ सुहागन वट पूजन कर
बैठ छाँव में कथा सुनातीं,
पावस में जब झूले पड़ते
हिलमिल सखियाँ कजरी गातीं।
आज नहीं पहला सा वैभव
सोच ये बरगद करे विलाप,
जर्जर देह मृत्यु को तरसे
अभागा जीवन है अभिशाप।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी, (उ. प्र.)