कविता
“पर्यावरण बचाओ”
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मानव दानव बने धरा पर #वृक्ष समूचे काट रहे हैं
बेघर पंछी घर को तरसें #जंगल सारे पाट रहे हैं।
#नीर बिना प्यासी है धरती पनघट हुए उदास रुलाएँ
अंतर्मन रोता जननी का कैसे भू पर जीवन पाएँ।
ज्वलित चिमनियों से दम घुटता भटक रहे खग, जन झुलसाते
#जंगल,गाँव,खलिहान रहे न भूखे कृषक,मनुज अकुलाते।
पेड़ धरा का दुख हर लेते पौध लगा विश्वास जगाएँ
धरती का उर सोना उगले ऐसा हम उल्लास जगाएँ।
फिर से महके जूही चंपा सावन रुत मतवाली आए
दूर प्रदूषण जग से करके घर आँगन खुशहाली छाए।
#वृक्ष,नीर,जंगल छिनते हैं जन जीवन को आज बचाएँ
दूषित नदियाँ सूख रही हैं शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर