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7 Oct 2018 · 1 min read

कविता

किताब
————–
आज किताबें व्यथा सुनातीं
कैसा ये कलयुग आया है?
मोबाइल हाथों में देकर
पुस्तक का मान घटाया है।

ज्ञान स्रोत गूगल बन बैठा
जग में ऐसा तोड़ कहाँ है,
पल में हल जो ख़ोज निकाले
दूजा न ऐसा जोड़ यहाँ है।

भारी बस्तों के बोझ तले
दुत्कारी जाती हैं पुस्तक,
पोथी बिन आज पढ़े दुनिया
लाचार लजाती हैं पुस्तक।

वैज्ञानिक युग की पूछो तो
पुस्तक का रुत्बा निगल गया,
याद ज़हन में ज़िंदा फिर भी
अब वक्त हाथ से निकल गया।

नीम तले बैठक चलती थीं
खोल पृष्ठ जुम्मन पढ़ते थे,
हास्य-व्यंग्य की कविता सुनकर
बैठे लोग हँसा करते थे।

पुस्तक अदली-बदली करके
कितने रिश्ते नित बनते थे,
बंद किताबों के भीतर तो
अनजाने प्यार पनपते थे।

जिल्द चढ़ाकर मेरे तन पर
पूरा कुनबा पढ़ लेता था,
सेल लगाकर इतराता था
आधे दाम झटक लेता था।

कल तक लोगों के जीवन में
सुुख-दुख साँझा मैं करती थी,
फ़ुर्सत के लम्हों में उनके
हाथों की शोभा बनती थी।

आज नहीं है कद्र कहीं भी
पड़ी दरारें छलती हैं,
पाठक को मैं खोजा करती
पृष्ठों से थैली बनती हैं।

पिंजरबद्ध खगों सी हालत
बीते कल को मैं तरस रही,
झाँक रही हूँ बंद पटों से
राहें तकती मैं सिसक रही।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

Language: Hindi
388 Views
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