कविता
“प्रकृति बचाओ”
रक्त अश्रु बहा प्रकृति करे ये रुदन
नहीं ध्वस्त करो मेरा कोमल बदन
वृक्ष पवन जल तुमसे छिन जाएँगे
प्रदूषित धरा पर जन क्या पाएँगे?
कुपोषित नदी कूड़ेदान बनी हैं
पतित पावनी आज मैली हुई है
कहे त्रस्त धरती मुझे ना रुलाओ
प्रदूषण हटा मनुज जीवन बचाओ।
इस बंजर धरा पर खग नीड खोए
पत्र पुष्प विहीन सघन पेड़ रोए
हुआ स्याह चेहरा आँसू बहाए
प्रदूषित धरा कैसे प्रकृति बचाए?
ज्वलित चिमनियों से हवा घुट रही है
प्रदूषित धुएँ से वायु लुट रही है
विटप लगाकर बाग उपवन सजाओ
जीवनदायिनी स्वच्छ वायु बचाओ।
प्रदूषण मिटा वन महोत्सव मनाओ
धरा को हरिताभ चुनरी ओढ़ाओ
तृषित शुष्क अवनी की प्यास बुझाओ
तजो स्वार्थ सब मिलके वृक्ष लगाओ।
प्रकृति ने दिए सुखद समृद्ध उपहार
दानव मनुज लूटे माँ का श्रृंगार
पर्यावरण प्रदूषित कर्म छोड़ के
संरक्षण करें नई राह जोड़ के।।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर