कविता
“घूँट-घूँट ज़िंदगी”
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बेबस, आहत ताने सह कर
औरत घुट-घुट कर मरती है,
नव रूप धरे इस जीवन में
आँचल में काँटे भरती है।
जिस दिन बेटी को जन्म दिया
उस दिन इक माँ की मौत हुई,
वो तोड़ सकी ना परिपाटी
नारी -नारी की सौत हुई।
मधुबन में पुष्पित ये तड़पी
जब मातु-पिता ने भेद किया,
बेटा-बेटी इक कोख जने
क्यों कपटी मन को छेद दिया।
घूँट ज़हर का पीकर बेटी
विदा हुई बाबुल के घर से,
बहू बनी, पत्नी-पद पाया
दबी रही रिश्तों के डर से।
वैश्या बन हर रात सेज पर
त्यागी लज्जा ये नग्न हुई,
फिर भेंट वासना की चढ़ कर
मुरझाई लतिका भग्न हुई।
नौ महीने सह प्रसव पीड़ा
लक्ष्मीवत कन्या घर लाई,
भावी जीवन दुष्कर पाकर
माता की ममता झुलसाई।
तड़प गई माँ बात सोच कर
घूँट-घूँट विषपान करेगी,
शूल -बिछौने पर सो बेटी
आहत हो सौ बार मरेगी।
भावुक हो मन में ये ठाना
नर प्रधान सत्ता बदलूँगी,
मान वधू को बेटी जैसी
उसके सारे दुख हर लूँगी।
बड़े चाव से विदा कराके
पुत्र-वधू को जब घर लाई,
भूलचूक उसकी बिसरा कर
अपनी सत्ता आप गँवाई।
घर-बाहर की जिम्मेदारी
सौंप सास को ऑफिस आई,
तकलीफ़ सुना कर बेटे को
माँ ने आफ़त गले लगाई।
निष्कासित हो गई अहिल्या
सिया समाई धरा में हार,
अपमानित हो भरी सभा में
द्रोपदी सहती है हर वार ?
सेवा, त्याग,समर्पित होकर
औरत जन की पीड़ा हरती,
तन-मन को न्यौछावर करके
पिघल मोम सी बाती गलती।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर