कविता
होगा कब मेरे जीवन का भोर,
कब फैलेगी सुख-शांति युक्त इंजोर।
थी जो अपनी छाया,प्रतिक्षण रहती साथ,
चली वह भी ,देख अंधियारी में छोड़ ।
उपकार किया था, जिस विषधर पर,
दूध संसर्ग में, विष और बढा पुरजोर ।
फणकाढे विष अहंकार से, फुफकार से,
यामिनी कीश्यामलता को किया और घनघोर ।
सीमाबंध प्राकृतिक संपदा पर होती है असीम विपदा ,
दुर्बल जीवन को देता झकझोर।
रात्रि में रतचर का होता युंही पहरा,अंधियारा से नाता गहरा,
दानव हुंकार से कांप उठी अवनी भी जोर ।
एक बेचारी,भगजोगनी रानी,
अथक प्रयास से ढूंढ रही अंधियारा तोड़ ।
पर इस अमानवीय संसार में,
धूमिल हो रहा हर प्रयत्न जोड़ ।
धैरज की भी जल रही चिता, अंग अंग ले रहे विदा,
खंड खंड विखर रहा हृदय का कोर ।
कौन मीन थामे बन खिबैया,है प्रलय में उबडूब नैया,
हर चेतन अचेतन का हुआ तोड़ममोड़।
होगा कब मेरे जीवन का भोर,
कब फैलेगी सुख-शांति युक्त इंजोर ।
उमा झा