कविता
‘जीवन का सच समझ न पाऊँ’
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जीवन का सच समझ न पाऊँ कुसुमित इच्छाएँ मुरझातीं।
सावन पतझड़ बन जाएगा ऋतुएँ आ संदेश सुनातीं।।
दर्द छुपाकर संघर्षों का कंटक पथ पर बढ़ती जाती।
शोक द्रवित होकर राहों में पीकर अश्रु सदा मुस्काती।।
अपनों ने धोखे से छलकर झुलसायी नफ़रत की ज्वाला।
अंतस भेद दिया शूलों से छलका प्रेम पिला विष प्याला।।
प्रेम तरसता वृंदावन को सूने झूले गीत न भाएँ।
रिश्ते-नाते झूठे लगते त्रस्त धरा पर जन सुख पाएँ।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)