कविता
किसी का बेवजह रूठ जाना
भी क्या रूठना हुआ!
बिना वादे किये वादों का टूट जाना
भी क्या टूटना हुआ!
सफर चलता रहा साथ बनकर
बिना हाथों के साथ छूट जाना
भी क्या छूटना हुआ!
राहें बनती गयी आसान!
बिन काँटों के सफर तय कर पाना
भी क्या मंजिल को पाना हुआ!
चलते रहे दरिया किनारे प्यास बुझाने
की खातिर!
बिन पानी के प्यास बुझाना भी
क्या शुकून पाना हुआ!
ढूँढते रहे हर आँखों में अश्क अपना
बिन गिराये यूँ मोतियों को जान पाना
भी क्या ढूँढ पाना हुआ!
रहे तन्हा उम्र भर बस एक शख्स की खातिर!
बिन बताये यूँ ही मजधार में छोड़ जाना
क्या यही साथ निभाना हुआ!
घटती नहीं उम्र सम्बन्धों की
यूँ बेवजह तोड़ लेना दिलों के रिश्ते
भी क्या तोड़ना हुआ!
सूनी रह जाती अमीरों की हवेलियाँ
तिजोरियों में कैद रह जाते हैं नोटों की फुलझड़ियाँ!
लेकिन
जगमगा उठते गरीबों के झोपड़ों जब शामिल होते अपने!भले
ही आधी रोटी ही रहे!
पर इन रोटियों का भी यूँ रंग बदलना
भी क्या बदलना हुआ!
जीवन की पगडण्डियों में
बिन राह के भटक जाना
भी क्या भटकना हुआ!
अरसों से संजोये रिश्तों को इस तरह से
दरकिनार कर जाना
भी क्या सोचना हुआ!
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शालिनी साहू
ऊँचाहार,रायबरेली(उ०प्र०)