कविता
थाली में फ़ैली दाल में
मक्की की रोटी को चूरते हुए
सनी हुई उँगलियों को चूमते होंठ
अब मौन हैं, सूख गए हैं
नम नहीं हैं टिशू पेपर की तरह.
इनकी औकात भी नहीं है
आज रिवाज़ है डिस्पोजेबल का
प्रयोग करके फेंकने के आदी हम
नसीहतों से सम्हालने वाले बुज़ुर्गों को
कवच की तरह सुरक्षा देते इंसान को
एक पल में कर देते हैं
हाशिये से बाहर-