कविता
“बलात्कार”
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बेटी होना पाप नहीं कुकर्म सोच कराती है
मुस्कान खिली रौंदी कलियाँ दानवता हर्षाती है।
खींच बाहें मुँह दबाया हाथ बाँधे फिर डराकर
दानवी बन लूट लज्जा फेंक दी काया धरा पर।
रो रही कुदरत जमीं पर मृत अधर भी काँपते हैं,
देश की बेटी लुटी है लोग चोटें नापते हैं।
छीन खुशी घर आँगन की तन की कोमलता लूटी
कुंठित स्वर लाचार हुआ क्ष्म्य भाव समता झूठी।
रोकती बढ़ते कदम को मैं भयावित काँपती हूँ
हाथ दुर्योधन न छू ले मैं कलेजा ढ़ाँपती हूँ।
याद उस दुर्गंध की जब खुरदुरी जकड़न दिलातीं,
दहशती आलम डराता सूरतें धड़कन बढ़ातीं।
रात-दिन वहशी दरिंदे देखकर मैं चींखती हूँ,
हाथ गंदे पा बदन पर देह अपनी भींचती हूँ।
रात भर दीपक जला कर मैं उजाले को तरसती
घृणा,रोष,आक्रोश लिए हृदय में हिंसा धधकती।
सहा आरोप लोगों का धरा सीता समा बैठी
लुटा कर द्रोपदी निज लाज अपनों में लजा बैठी।
न सतयुग रास आया था न कलयुग रास आया है।
सिसकती आबरू कहती यही अहसास पाया है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर