कविता ही तो है वो
इस भाग दौड़ में इतने मशगूल हो गए हैं हम
कि पता भी नहीं चलता
कब कब कहां कहां कैसे कैसे
हमारी शिद्दतें समझौतों में घुलती रहती है
फिर भीड़ भाड़ के बीच में ही भीड़ भाड़ से दूर कविता ही तो है
वह पिछले दरवाजे के बाहर का आकाश
जहां जब तब जहां-तहां जैसे तैसे
मेरी आंखें खुलती रहती है
कुछ ख्वाब होते हैं, हरदम अधूरे रहने वाले
कुछ झूठ होते हैं, ईमानदार वाले
चरित्र की चमक पर
घिसे जा रहे हैं सच के पीछे से
दांत निपोरते हंसते-खेलते से वो ख्वाब
जो ना कभी पूरे हो सकते हैं
न पीछे छूट सकते हैं
वह झूठ
जिन्हें कभी कहा नहीं जा सकता
वह सच
जिन्हें दबाया नहीं जा सकता
इन सबके बीच
कविता ही तो है
वह गुलाल खाने को तरसता होली मिलन का मैदान
जहां पक्की कच्ची कुछ ख्वाबी कुछ सच्ची मुच्ची
भावनाएं गले मिलती रहती है
भीड़ में अलबेली ,तनहाई में अकेली
कविता ही तो है
मेरे अंदर का वह बचपन
जिसमें मेरी सच्चाई कतरा कतरा करके निकलती रहती है