#कविता : समझ आदमी की
#समझ आदमी की
लगा मुखौटे कई आदमी, ख़ूब मचल इठलाता है।
पढ़ो चेहरा कई दफ़ा तुम, तभी समझ में आता है।।
बिन समझे विश्वास किया तो, चोट लगेगी अति भारी।
भरपाई करने में शायद, पड़े ज़िन्दगी कम सारी।।
सावधान अपनो से रहना, राज इन्हीं पर होता है।
घर का भेदी लंका ढ़ाए, गैर मनुज तो सोता है।।
प्रेम करो तुम खुली आँख कर, हार अँधेपन में होती।
चीर बचाने हेतु द्रौपदी, अपनो आगे ही रोती।।
कभी कंश ने कभी शकुनि ने, इतिहास दोहराया है।
औरंगजेब ने भी ‘प्रीतम’, अपनों को ठुकराया है।।
भरत-सरिस भी अपने होते, आँखों का सपना होते।
बिना ज़मीं की पहचान करे, मगर नहीं सपने बोते।।
मुझे अँधापन नहीं सुहाए, मर्ज़ आपका क्या भाए?
झूठ पचाते सच ठुकराते, मुझे नज़र हैं आए।।
आज दशानन भी हारा है, गिरगिट सिर चकराया है।
मानव ने ही विश्वास चुरा, चूना घना लगाया है।।
#आर.एस.’प्रीतम’
#स्वरचित रचना