कविता – शील बचाने उठ अब नारी ।
कविता – शील बचाने उठ अब नारी ।
चल उठ स्त्री बांध कफन अब
कोई रक्षक नहीं आयेगा
हत्या शोषण बलात्कार से अब
कोई तुझे नहीं बचायेगा ।
ये कलयुग है निर्ममता यहाँ
स्नेह की आस किससे लगाओगी ?
स्तन पर नजरें टिकाये बैठे
दुशासन से ना बच पाओगी ।
कैसी आस लगा रखी है तुमने
जिस्म के ठेकेदारों से ?
खुद की रक्षा खुद के सिर है
शस्त्र कब तक ना उठाओगी ?
सदियों से उपभोग की वस्तु
स्वयं को कितना सताओगी ?
शील बचाने खड़क उठालो
कब तक बेचारी कहलाओगी ?
वस्त्र कोई खींचेगा तुम्हारा
तुमपर मर्दानिगी दिखायेगा
ऐसे बलात्कारियों को तुम
कब नामर्द नपुंसक बनाओगी ?
छोड़ संताप उठजा अब भोग्या
कोई नहीं बचाने अब आयेगा
नूतन आगाज़ के साथ करो सामना
मौन ईश्वर भी सर झुकायेगा !
— जयति जैन ‘नूतन’ —-