कविता शीर्षक:-
“चाँद से प्रेम”
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मैं तुम से नहीं
चाँद से प्रेम करती हूँ
तुम आसमान में हो
यह सोचकर नहीं
मै आसमान में
चाँद को देखती हूँ कई घण्टों
हाँ, तुम आसमान में महसूस होते हों
और मैं नकार जाती हूँ तुमको,
तुम्हारे वजूद को
चाँद तो शीतल है
और तुम?
तुम तो
मेरे लिए पाषाण से भी
निष्ठुर बन गए हो शायद
तुम्हें मेरा प्रेम रास नही आता है शायद
कभी-कभी सोचने लगती हूँ
तुममें ऐसा क्या देखा?
और प्रेम कर बैठी
कुछ भी तो नहीं
या फिर बहुत कुछ?
एक मेरा प्रेम निस्वार्थ था
और एक मेरे प्रेम में
मेरा ही कोई स्वार्थ था
निस्वार्थ प्रेम में
तुमसे कोई अभिलाषा नहीं थी
और धीरे-धीरे
तुम्हारे प्रेम पाने की अभिलाषा में
स्वार्थी बन गई हूँ
और शायद मैं अब तुम्हारी प्रतिशोधी भी हूँ
पता नहीं कैसे?
मेरा हदय पत्थर बनता जा रहा है
क्या तुम मेरे हृदय की
इस गतिशीलता को रोक सकते हो?
मुझे पत्थरदिली बनने से?
क्या मेरे प्रेम को
अपने पास
चिरजीवी बनकर रख सकते हो
या मैं अपने प्रेम को मरने के लिए छोड़ दूँ
और मेरी इस सुनहरी मछली को
निकलकर
फेंक दूँ फर्श पर
और अपनी
आँखों के समक्ष
उसकी पीड़ा और तड़पन को अनुभव करूँ
क्या तुमने कभी
ऐसी ही पीड़ा और तड़पन को
मेरे सन्दर्भ में अनुभव किया है?
हाँ, मैंने तो बहुत कुछ सहा हैं
तुम्हारे प्रेम में ~तुलसी पिल्लई
14-01-2019