कविता : व्रीड़ा
व्रीड़ा
खोया स्वत्व दिवा ने अपना
अंतरतम पीड़ा जागी।
घूँघट नैन छिपाए तब ही
धड़कन में व्रीड़ा जागी।
अधर कपोल अबीर भरे-से
सस्मित हास लुटाती-सी।
सतरंगी-सी चूनर ओढ़े
द्वन्द विरोध मिटाती-सी।
थाम हाथ साजन के कर में
सकुचाती अलबेली-सी
ठिठक सिहर ज़ब पाँव बढ़ा तो
ठाढी रही नवेली-सी।
आई मन में छाई तन में
चौक सिहर सब बंध गए।
हुआ गगन स्वर्णिम आरक्ततिक
खग कलरव निद्वन्द गए।
चपल चमक चपला-सी मन में
मेरे मन को रोक लिया।
कैसे करूँ अभिसार सखी मै
उसने मुझको टोक दिया।।
सुशीला जोशी, विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर उप्र