कविता – राह नहीं बदलूगां
राह नहीं बदलूंगा
राह नहीं बदलूंगा
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फुफकारे,
जहर उगले लाख विषधर
मैं अपनी राह नहीं बदलूंगा
तूफानों के आगोश में पला हूं।
आंधियों से कैसे डगमगाउंगा।
खड़ा हूं जिस पथ
वह पथ मेरे रब का है।
चमकती रहे बिजलीयां
गड़गड़ाते रहे बादल।
पीता रहूंगा हलाहल।
वो जानता है
मैं जो कर रहा हूं।
अच्छा कर रहा हूं।
किसी की चापलूसी
या जी हजूरी से
पेट नहीं भर रहा हूं।
बेशक लंबी उड़ान है
उड़ कर दिखाऊंगा।
वो डाले मुझ पर
शनि दृष्टि, हनुमान सा
लंका जलाता जाऊंगा।
यकीन है मुझे यह वक्त है
कभी ठहरता नहीं है।
घर जलाए जो औरों के
दहकती आग में घर उसका
भी कभी बचता नहीं है।
अकेला हूं तो क्या हुआ
समर दुर्योधन नहीं
अर्जुन जीता था।
बस कन्हैया तेरी
गीता मेरा मार्गदर्शन है।
चलता हूं मैं
तेरे बताएं पथ पर
सुदर्शन ही तेरा
मेरा संरक्षक है।
मेरे उसके सबके
गुजर जाने के बाद
लोग खुद बताएंगे
बर्बरीक की तरह।
कौन क्या था
किसकी कितनी थी
औकात।
कौन प्रपंच रचता
शकुनि की तरह
कौन धृतराष्ट्र सा
सब सह जाता था।
कौन थे कायर,कौन
अभिमन्यु कहलाता था।
इतिहास गवाह है
शकुनी कुत्ते की
मौत मारा जाता है।
दुर्योधन दुर तालाब
में मुंह छुपाता है।
इसलिए सब सह कर
धैर्य पूर्वक चलता हूं।
बस विश्वास है
मेरा कान्हा पर
उसी के आगे झुकता हूं।
चतरसिंह गेहलोत
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