कविता बाजार
जाने कितने है कवि यहां,
जाने कितनी है कविताएं,
कुछ हिंदी की कुछ उर्दू की,
सब भिन्न भिन्न है रचनाएं।
लगी साहित्य की भीड़ यहां, नव लगे है रस कतार में,
लो मेरी भी कविता पेश है, इस कविता के बाजार में,
लिखा किसी ने प्रेम पर,
अनुभाव कही पर व्यंग्य है,
अपनी अपनी है बोली सबकी,
अपने अपने ही ढंग है।
आगे बढ़ने की अभिलाषा, मैं रह जाऊं न मझधार में,
लो मेरी भी कविता पेश है, इस कविता के बाजार में,
कलम है मेरी नई नई,
शऊर नहीं है लिखने का,
तारीफ किसी की करने का,
बस दो कौड़ी में बिकने का।
चापलूसी तुम्हारी क्यूं करूं, भला क्यों करूं बेकार में,
लो मेरी भी कविता पेश है, इस कविता के बाजार में,
इसे सजा धजा कर लाया हुं,
अलग थलग अंदाज में,
वैसे कविता तो कोमल है,
है थोड़ी तुनकमिजाज में।
कितनी आकर तो चली गई, और कितनी है इंतजार में,
लो मेरी भी कविता पेश है, इस कविता के बाजार में।
@साहित्य गौरव