कविता बनाई नहीं जाती
कविता बनाई नहीं जाती
स्वयं ही बन जाती है
अंदरूनी भावों को कलम
कोरे कागज में उकेरे जाती है
जब भाव मुख से बयाँ नही होते
लेखनी के द्वारा अपना एहसास कराती है
समाज का जीता जागता
आइना दिखाती है
लोगों के चरित्र को दिखाती है
दर्द सबका बताती है
विरोध भी जताती है
मनोरंजन भी कराती है
हर वर्ग के लिए अलग अलग
रूप में बुनी जाती है
भेदभाव से परे सबको
अपने भीतर समाहित
करती जाती है
भावों,के एकत्रित समूह
की अभिव्यक्ति
कविता कहलाती है