कविता तुम क्या हो?
कविता तुम क्या हो?
कविता, तुम क्या हो? मुझको भी बतलाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, मूल वेश में आओ जरा॥
हो कवि कल्पित कपोल कल्पना, या वाङ्गमय की प्रस्फुटित धारा।
तेरे स्मरण मात्र से, रोमांचित हो, पुलकित हुआ, मेरा रोम-रोम सारा॥
उच्छृंखल उमंग से प्लावित हो, तप्त रुधिर बन रग-रग में बहता।
कौतूहल, बुलबुला सदृश्य, श्रांत हृदय में उठता ही रहता॥
या भाव विह्वलता की कडी हो, तो इन भावों को समझाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, ………॥१॥
जीवन के आदर्शों की प्रतिकृति या, जीवनवृत्त का हो सम्पूर्ण समन्वय।
पथ दर्शक समष्टि सृष्टि के, ज्ञान तत्व का करती अन्वय ॥
कभी पथिक सी भटकाती है, कभी ये मंजिल देती है।
कभी शोक संताप हृदय का, ये समस्त हर लेती है॥
सार छुपा है क्या-क्या तुझमें, मेरे सम्मुख भी लाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, ………॥२॥
हास्य करुण श्रंगार वीर, वीभत्स शांत अदभुत रसलीन।
रौद्र भयानक के होते भी, वात्सल्य में है तल्लीन॥
ओज प्रसाद माधुर्य गुणों से, पोषित शब्द सुमन चुन-चुनकर।
मधुरा, ललिता, प्रोढा, परुषा, भद्रा, काव्य वृत्तियां बुनकर॥
शब्द शक्तियों से हो अलंकृत, कोई साहित्यायन तो दिखलाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, ………॥३॥
अनल सिंधु गिरि कानन अम्बर, तुझमें सभी समाया है।
तेरी सीमाओं को अब तक, कोई माप न पाया है॥
खोजूं तुझको कहाँ? कहाँ से, तेरा उद्गम होता है।
कोई पढकर हंसे खुशी से, कोई गम में रोता है॥
दिल-दिमाग-मन को वश में, करती कैसे बतलाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, ………॥४॥
रवि की किरणों से प्रखर दीप्त, तू हिम से भी शीतल है।
भावों के प्रबल प्रवाह में तो, तू सरिता से भी अल्हड है॥
वर्ण बिन्दु से हृदय पटल पर, क्या-क्या बिम्ब बनाती हो।
कितने ही भावों को गढ-गढ, नव चेतना जगाती हो॥
‘अंकुर’ जीवन ज्योति शिखा बन, आनंद रस बरसाओ जरा।
अपने छद्म वेश को तजकर, ………॥५॥
-✍️ निरंजन कुमार तिलक ‘अंकुर’
छतरपुर मध्यप्रदेश 9752606136