कविता, जगदीश हरे
आरती
ऊँ जय जगदीश हरे ।
प्रभु जय जगदीश हरे ।।
कोरोना में सभी कार्य क्रम, जहाँ के तहाँ धरे ।
करें कौनसे जाकर ,हम अपनी चर्चा ।
रँग गुलाल का भी होली में, निकला न खरचा।
अगर कहीं आमंत्रण,आए लाभ हेतू।
बीच में आके नाम कटायें,कवि राहू केतू ।।
कोरा कोरा करें कीर्तन,कबतक मोदी का ।
गुरू तेल को तरसें,चमचे माल खायें घी का।
सुखद भविष्य बनाने, यही कृपा करदो ।
चाटुकारिता के गुण सब मुझमें भर दो ।।
जोड़ जुगाड़ लगाओ, दया करो देवा ।
किस नेता की करें बुढापे में जाकर सेवा ।।
काव्य अनेक प्रकाशित, बीत गई पीढ़ी ।
अकादमी की अबतक, ढूंढ रहा सीढ़ी ।
आज नहीं कल पावे ,कल न सही परसों।
इसी सोच में अपने, निकल गये बरसों ।
बरसों तक गणतन्त्र दिवस की, खूब खुशी लूटी।
लालकिले की दीवारों से,खुली हँसी छूटी।
लक्ष्मीकांत मुलायम लालू बोरा भी हरषे ।
गये जमाने जब हम पर भी खूब नोट बरसे।
पालन कर निर्देश सभी, कोरोना से जीते ।
उनसे कर डिसटेंस, हमें अब एक साल बीते ।
काम क्रोध मद लोभ नव्यापे,है इतनी क्षमता,
खीज खीज कर अंत समय में, हार गई ममता।
भारत करे विकास, राम का नाम पथ चलन हो
छंद शास्त्र के सही काव्य का,उचित आकलन हो
लाक डाउन में फंसे,नहीं परमीशन मिल पाई ।
क्या करते घर बैठे, आरति यह गाई ।
सक्सेना, शक से ना-देखे न तुमको ।
करो टेर पर देर सूत्र यह,मालुम है हमको ।
अर्थाभाव सताये, शब्द फिरें घेरे ।
करुणा हाथ बढाओ द्वार पड़ा तेरे।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश