कविता चाहत की मंजिल
चाहत की मंजिल लूटी है अपनी कोई दूकाँ तो नहीं
रब ने कठपुतली बना के नचाया छीनी जुबाँ तो नहीं
जिसे देखों घृणा से नादाँ परिंदों पर पत्थर उठाता है
उसकी पाक मोहब्बत का गुनहगार भगवान तो नहीं
सोचा खुदा मिलता हो तो,मंदिर मस्जिद भी जाऊं
पर तू मुझमे है तो ये जिस्म तेरा कही, मकाँ तो नहीं
झकझोर गया मेरी अंतरआत्मा को बेरुखी दिखा
जिदंगी की कड़वाहट में कही ये तेरा ,तूफां तो नहीं
अनजान अशोक चला खुद की तलाश में ऐ खुदा
कीमत चूका दूँगा कही भी ,तेरी जाँ पहचान तो नहीं
दोस्ती ना सही दुश्मनी निभा ले मुझसे तू मेरे ख़ुदा
मैं मासूम तेरे तीरों कमान का कही निशाँ तो नहीं
हुक़्म गुरु से तो आकर्षित मैं तुझे पाने को हुआ हूँ
सोया ज़मीर मेरा या तेरा तू साधू मैं शैतान तो नहीं
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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