ज़ब भी कभी मैं कविता के लिए मंच पर ज़ाऊंगी
जब भी कभी मैं कविता के लिए मंच पर ज़ाऊंगी
तो सामने एक कुर्सी मैं आप की भी रखवाऊंगी
अगर आप आओगे तो मैं धन्य हो जाऊंगी
फिर मैं सब को अपनी कविता के सूतरधार से मिलवाऊंगी
सामने एक कुर्सी मैं आप की भी रखवाऊंगी
आप को देख कर क्या कविता मैं पढ़ पाऊंगी
दिल ही दिल में आप की बांहो में समा ज़ाऊंगी
सामने एक कुर्सी मैं आप की भी रखवाऊंगी
कुछ ज़्यादा ही दूर निकल ग ई मैं वास्तविकता से
क्या अपना ये स्वपन मैं पूरा कर पाऊंगी
सामने एक कुर्सी मैं आप की भी रखवाऊंगी
ज़ाने क्यों लगता है कि आप नहीं आओगे
पर आप की खाली कुर्सी से ही आप की शिरकत हो ज़ाएगी
सामने एक कुर्सी मैं आप की भी रखवाऊंगी
जब कभी मैं कविता के लिए मंच पर ज़ाऊंगी
सामने एक कुर्सी आप की भी रखवाऊंगी।