कविता के अ-भाव से उपजी एक कविता / MUSAFIR BAITHA
कविता के अ-भाव से उपजी एक कविता
पता नहीं कवि कोई कवि
कैसे अपनी रचना में
किसी भौगोलिक खंड विशेष से
धैर्य का एहसास पा लेते हैं
पा लेते हैं धीरज का आश्वासन
किसी से सहनशीलता का पाठ
दृढ़ता और अच्छे बुरे का प्रतिमान भी
पता नहीं कैसे किसी कवि को
किसी राष्ट्र से अविकल मिल जाता है
भारतीय महाद्वीप की एक कवयित्री ने
इस भूखंड में स्त्री-धैर्य पाया है
मानो एशिया में भारत पाक हैं धैर्य पर
और इधर पाक बांग्लादेश का आपसी धैर्य
न चल रहा हो उफान पर
है रंगभेद जैसे सहनशीलता की निशानी अफीका की नस्लभेदी रग राग में
और दृढ़ता जैसे अफ्रीका के बंदीगृह का प्रफुल्ल रहवासी हो
और जैसे नत हो गया हो अमेरिका अफ्रीका के आगे काम भर
और न हो अब भी दुनिया को अपने ठेंगे पर रखता मस्त वह
यूरो जैसे नहीं तना चाहता है डॉलर और पाउंड पर
न चलते हो जैसे शाह और मात का खेल
तमाम देश के करेंसियों के बीच
अस्तित्व और वर्चस्व प्राप्त करने की खातिर
और धैर्य और धर्म का व्यापार ही चल रहा हो जैसे
उच्छृंखल पूंजीवादी व्यवहार में डूबने को मजबूर संसार में
हर पारम्परिक अच्छी व्याप्ति जैसे खड़ी हो
स्त्री मान एवं अधिकार के विरुद्ध ही
कि अच्छे को खोने और बुरे को पकड़ने में
जैसे स्त्री स्वाभिमान की आमद
और स्त्री पीठ पर मर्द के हाथ का साथ होना होता हो
जरूरी रूप से निमित्त सुपाठ और सुख-चैन का
यूरोप का फैशन जैसे जागतिक फैशन-एका का दर्शन है
और प्रेरणा का एकमात्र स्रोत बना बचा हुआ है कवयित्री की निगाह में
और जैसे यूरोप का फैशन ही केवल चिपका पड़ा हो हमारे तन पर
और फैशन क्षेत्रे कोई स्वतंत्र करतब ही न चलते हों हमारे बसन-हलके में।