कविता कलश
नव गीत, कविता, अकविता
गुदगुदाती क्षणिक क्षणिका
और भी ऐसा बहुत कुछ
हायकू या माहिया
और जाने क्या क्या
आज का कविता कलश ।
आज की हिंदी गजल भी
छोड़ कर पीना पिलाना
साहित्य आया कता बनकर
कथ्य लेकर कथन लेकर
मात्रायें, बहर बंदिश
आज का कविता कलश ।
सूर, मीरा और तुलसी
रसखान, कबिरा, बिहारी
छू सकें तो छुयें उनको
शारदा मां के पुजारी
बस जुगुनू भर रहा है
आज का कविता कलश ।
बाहरी आकाश उड़ता
छोड़कर अंत:करण को
घूम कर परदेश देसी
विमर्षों मे उलझता है
तोड़कर के भाव-समता
आज का कविता कलश ।
लक्ष्मी नारायण गुप्त