” कविता और कंप्यूटर “
” कविता और कंप्यूटर ”
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
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आज थाअवकाश
का दिन ,
कोई भावना घर
कर गयी !
मन में कुछ
विचार आया ,
कविता मेरी
निकल गयी !!
पहले कलम
निकलते थे ,
कापियां
निकाली जाती थी !
अपनी कल्पनों
की डोर से,
एक तश्वीर
बनाई जाती थी !!
पर आज कॉपी
कलम को ,
छोड़ यंत्रों का
सहारा लिया !
कविता की
गंगा में हमने ,
तो जमके गोता
लगा लिया !!
एकांत चिंतन
लीन रहकर ,
कविता मेरी
निखारने लगी !
भाव भंगिमा से
ओत प्रोत,
निर्मल -धारा
बहने लगी !!
सम्पूर्ण कविता
बन गयी ,
ह्रदय मेरे
गद-गद हो गए !
आज सब-कुछ
मिल गया ,
मेरे नक्षत्र सारे
खिल गए !!
कॉपी करने का
बटन जब ,
हमने खूब
सम्भलकर दबाया !
जल्दी में हम
भूल कर गए ,
डीलिट् ने
लेखनी को मिटाया !!
हाय !
तौबा यह
क्या हो गया ?
आकाश से गिरे
खजूर पर रुके !
कल्पना के संसार से
हम क्षण में
औंधे मुंह ही
लड़खड़ाते गिर गए !
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
शिव् पहाड़
दुमका
झारखंड
भारत