कविता –एकला चलो रे —
एकला चलो रे
बचपन मे रेडियो पर रवीन्द्र संगीत सुनता था
बंगला भाषा ना जानते हुए भी गुनता था
एकला चलो रे गुरु देव का यह गीत आज भी गुनगुनाता हूँ ।
और अपने को बहुत अकेला पाता हूँ ।
मुझे राह मिली ना मंजिल , परंतु यह गुरु मंत्र मेरे बहुत कम आ रहा है ,
जब भी मैं उदास अकेला होता हूँ
कुछ पाने की चाह लिए मै अपना जीवन जीने के लिए निकलता हूँ
तो भीड़ का करुण क्रंदन , गरीबी के बोझ तले
दबा मैला कुचैला बचपन ,
सहारे के लिए तरसता बुढ़ापा
और जीवन मे कुछ करने की आस लिए मैं
देखता हूँ अपने साथियों, मित्रो को
तब गुरुदेव मुझसे कहते हैं
एकला चलो रे ।
जीवन के संग्राम मे बिना माया –मोह के
बिना राग-द्वेष तृष्णा के एकला चलो रे
एकला चलने से कारवां बनता है
नित्य नया नेतृत्व निकलता है
आशा और प्यार मे स्नेह पलता है
जीवन का नवगीत सृजित होता है
तब हर गुरुमंत्र यही कहता है
एकला चलो रे ।
मेरे एकला चलने मे ही यथार्थ है
वरना मेरे लिए सब माया जाल है ।
मेरे विश्वास अविश्वास बनते रहेंगे ,
लोग मेरे कान भरते रहेंगे ,
मैं अपना परायापहचान भी ना पाऊँगा
मैं जीवन जीने की कला जान भी ना पाऊँगा ।
तटस्थ राह कर भी मेरा जीवन संघर्षमय है ,
केवल मेरे साथ एक गुरुमंत्र है ,
एकला चलो रे , एकला चलो रे
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव