कविता(प्रेम,जीवन, मृत्यु)
स्वाभाविक तौर पर सब निर्जीव होता है
कोशिश करनी पड़ती है प्राण भरने की
जीवंत “बनाना” पड़ता है
होता नहीं है कुछ भी
कोशिश खत्म, जीवन खत्म
सक्रियता जीवन है, अशांति भी
शांत होना मृत होना है
कौन नहीं होना चाहता… शांत!
मृत ?
तुम कहोगे प्रेम जीवन्त है, शाश्वत है
मैं कहती हूँ, हाँ! हो सकता है
पर अस्थिर भी तो है
ठीक अन्य भावों की तरह
दुःख की तरह,
उमड़ता है, ठहरता है, बहता है, बिसरता भी
समस्त अस्थिर चीज़ें अपनी यात्रा में हैं,
यात्रा, मृत्यु की ओर, ख़त्म होने की ओर
जीवित “रखना पड़ता है”
कोशिश “करनी पड़ती है”
कोशिश खत्म, प्रेम खत्म,
जीवन खत्म
शेष बचती है मृत्यु
निर्जीवता
प्रेम भी बचा रहता, यदि मृत होता
प्रेम, मृत हो सकता है क्या ?
मृत मतलब स्थिर, मतलब पार्थिव
मतलब गतिहीन
मतलब जिसका होना न होना अघोषित हो,
अनियत, होता है क्या ?
नदियाँ, पेड़ प्रेम करते हैं क्या सूखने तक ?
जैसा कि हमें बताया गया है
तो क्या सहज स्वाभाविक घटना प्रेम है ?
स्वाभाविक तो मृत्यु होती है
सहज जीवन हो सकता है क्या ?
तो क्या जीवन मृत्यु के मध्य पुल है प्रेम ?
पुल बनाए जाते हैं, प्रेम तो नहीं
जिसे बनाना पड़े, जहाँ कोशिश हो
वहाँ स्वाभाविकता हो सकती है क्या ?
जो स्वाभाविक नहीं, सहज नहीं, प्रवाह में नहीं
प्रेम कैसे हो सकता है
जीवन हो सकता है क्या ? या मृत्यु
नहीं! या शायद हाँ!
पता नहीं!
जीवन, प्रेम, मृत्यु के मध्य और क्या क्या है ?
कितना कुछ है !
अनुभूतियाँ, विचार, भाव सब के सब…जैसे भँवर की ओर बहती नदी का हिस्सा हों
गोल गोल घूमते हुए
प्रवाहित होकर समा जायेंगे उसी नाभि में जहाँ से निकले थे
कोशिशें खत्म हो जाती हैं…एक दिन
जीवन भी
प्रेम भी
मृत्यु…?