कविताएँ
1. सुना है सपने सच होते हैं।
मन की तरंगे बढ़ने दो
मन पतंग सा उडने दो
पंख तेरे अब खुलने दो
भ्रम की दीवारें गिरने दो
नैनो में सपने पलने दो
सिंचित-पोषित
बीज अंकुरित होते हैं..,
सुना है ,सपने सच होते हैं
उम्मीद का सूरज उगने हेतु
अंधियारा मिटाने हेतु
उजियारा फैलाने हेतु
खुशियों के मोती चुनने हेतु
गहराई में ,
गोते लगाने पड़ते हैं
सुना है ,सपने सच होते है
बिन थके जो हम
चलते रहें,
कर्तव्य् पथ पर जो
हम डटे रहें,
उत्साह और विस्वास से
हम भरे रहें..
तब जाके हम कर्मठ बनते है
सुना है,सपने सच होते हैं…।।
2.मैं और तुम
हर सुबह पत्तों पर चमकती ओस हो तुम,
हर मास का अंजोर पाख हो तुम।
तुम होली, दीवाली और दशहरा
और ईद का उगता चाँद हो तुम।।
मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर की,
आरती,नमाज और प्रेयर हो तुम।
सुंदर कपास का फूल हो तुम
मिट्टी की सौंधी खुश्बू हो तुम
अमीरी का मुकम्मल ख्वाब हो तुम,
मरते की आखिरी सांस हो तुम।।
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तुम सर्दी की गर्म हवा,
मैं मई-जून की गर्मी सा।
उगते सूरज की चमक हो तुम,
मैं कोहरे में डूब रहा।
तुम हीरा कोहिनूर जैसी ,
मैं घोर अंधेरे सा काला।
अति प्यासे की प्यास हो तुम,
मैं भरे पेट के जूठन सा ।
3. दुःख आखिर कब तक रहेगा
दुखों की थी जो काली रात,
हँसी के जो सूखे थे हर इक पात,
मुसीबत थे घने बादल,
जो कोहरा ग़म का था छाया,
फिर सुबह हुई सबकी
उम्मीदें हुईं पैकर,
लेके धूप और उजाला,
तिमिर का हनन करने को,
फिर से तिमिरारि निकल आया।
4.महज कविता नहीं हूं मैं।
तीर सा चुभता शब्द हूँ मैं।
शब्दों में पिरोई, मोतियों का गुच्छा हूँ मैं,
शब्द नहीं शब्द का सार हूँ मैं॥
कटते पेड़ों की उन्मादी हवा हूँ मैं,
प्रकृति का बिगड़ता संतुलन हूँ मैं।
बाइबल हूँ, कुरान हूँ मैं,
अपने आप मे एक महाभारत हूँ मैं॥
हर नए शुरुआत की हडबड़ाहट हूँ मैं,
शर्दियों में ठिठुरते बेघरों की ठिठुरन हूँ मैं।
गर्मियों में तपते मज़दूर का,
बहता पसीना और गर्माहट हूँ मैं॥
लोभ, छोभ,मोह, माया और उत्साह हूँ मैं,
दुख, दर्द, घाव , बीमारी और इलाज हूँ मैं।
किसी एक ने लिखा नहीं है मुझे,
बहुतों के पीड़ा और दर्द का अहसास हूँ मैं॥
हिंसा और अराजकता हूँ मैं,
भय, चिंता और कलेश हूँ मैं।
प्यार, भाईचारा और आपसी सौहार्द हूँ मैं॥
किसी के भीतर पल रहे भावों का उन्माद हूँ मैं,
जो मुझे गाए उनका गीत हूँ मैं।
जो मुझे समझे और माने उनका मीत हूँ मैं॥
दशों रस, तीनों गुण और
चारों ऋतुओं का पोशाक हूँ मैं,
मुझे लिखने वाले की पहचान हूँ मैं।
महज़ कविता नहीं हूँ मैं॥
5.ओ दो साल जिन्दगी कॆ
(2010-2012)
ओ छोटा शहर पर जगह बडी,
फैजाबाद की हनुमान गढी,,
वहीं शान्ति और शुकूं से विलग
कौतुहलयुक्त अपना बसेरा,,
‘ओ दो साल जिन्दगी के….
कुछ कुशलताऎं थी गढनी बाकी,
‘वही रची जा रहीं थीं,,
नजदीक ही हेक्सागोनल आनन वाले की चाय की ढाबली,
पूरा कुटुम्ब होमोलोगस सिरीज विलगाते,
जिसे निहारते ही आर्गेनिक केमिस्ट्री याद आ जाती,
कुछ शुकूं के पल वहाँ मिल जाते,
बाबा आदम के जमाने का रेडियो,
जो बस विबिध भारती सुना पाता
अयोध्या में मन्दिर-महजिद मुद्दा जो चल रहा था
देश भर के हर राज्यों की पुलिसों का जमावडा था शहर में,
पूरा शहर पुलिस छावनी बना था,
हर व्यक्ति शंका के आयाम मे होता,,
वैसे तो ये कोई मुद्दा नही था,
पर सरकारें बनती और विगडती थीं
राम मंदिर निर्माण के आश्वासन पर।
मामला कोर्ट में था और कोर्ट पर सर्वसम्मति का विश्वास
लोगों का विरोध जायज था बाबरी मस्जिद का ढाँचा जो ढ़हाया गया था,
हालांकि देश मे मंदिरों को बहुत लुटा गया था
मंदिरे बहुत ढहाई गयीं मुगलकाल और उस से पहले भी,
पर राम मंदिर निर्माण पर राजनीति ज्यादा हुई, उतना विरोध नहीँ|
रामलला तो सबको प्यारे, हर धर्म और समुदाय के न्यारे|
फिलहाल कोर्ट का फैसला अभी आना था।
इन सब से परे इक विलगित आशियाना था अपना
होस्टल और यूनिवर्सिटी कैम्पस से ज्यादा वक्त सारे बैचमेट्स नाके और
हमारे रूम पर बिताते थे,
कहते हैं किताबों से ज्यादा परिस्थितियां सिखा देती हैं
और उन से भी ज्यादा कुछ लोग
कुछ व्यक्त्वि से वाकिफ हुआ,,
सबके नाम उच्चारित करना
बामस्कत है,,
किसी का तर्क,किसी के विचार तो किसी की कर्मठता अविस्मरणीय है,,
अब तो जिन्दगी अजीब कशमकश में है,
हर राह अन्जानी,हर लोग अजनबी,
फिर भी याद आते हैं,,
ओ दो साल जिन्दगी के ।
6.स्थायित्व
ब्रह्मांड का हर कण दूसरे कण को
आकर्षित अथवा प्रतिकर्षित
करता रहता है सतत..
ताप,दाब और सम्बेदनाओं से प्रभावित
टूटता-जुड़ता हुआ
नये रूप अथवा आकर के लिए लालायित..
अस्तिथिर होकर
अस्थिरता से स्थिरता के खातिर तत्तपर..
दूसरे ही छन नए स्वरूप और
पहचान की कामना लिए विचरित करता है
वन के स्वतंत्र हिरण की भांति अपनत्व को खोजते हुए
अंधेरों और उजालों में..
थक-हार कर ताकने लगता है
ऊपर फैले नीले-काले व्योम में दूर तलक
एक ऐसी यात्रा की सवारी
जिसका अंत सिर्फ अनन्त है,
चलायमान है नदियों की नीर की तरह
जो सूख जाती हैं हर वैशाख तक अब..
सहता रहता है कुदरत के धूप-छांव
और दुनिया के रीतोरवाज..,
लड़खड़ाता-संभालता और
उलझता,सुलझता हुआ।
छोटे-बड़े कदमो से बढ़ता रहता है
स्थिरता की ओर..
तिनके से अहमब्रम्हाष्मी की विभूति तक..,
असंम्भव अभिलाषा लिए एक जातक की भांति
नीति अनीत विसार कर
सगे-सहगामी को विलग कर
अंततः संस्मरण और कल्पनाओं की
अस्थायी स्थिरता का आलिंगन करता है।
7.मरते किसान नहीं, मर रही हमारी आत्मा है ।
बादल घरते हैं बजली कड़कती
बिन मौसम बारिश होती है,
तब खेत मे कटे पड़े गेंहूं देखकर किसान पर
क्या बीतती है।
पानी फिरते देखता है,
अपने महीनो की मेहनत पर
जब सूखने लगती हैवधान की फसल
आसमान निहारता है और बाट जोड़ता है बारिश
की संभावनाओं पर
बड़ी विषमताएं हैं एक किसान के जीवन मे,
बड़ी यातनाऐं है एक किसान जीवन मे।
डगमगाता तो सिहांसन उसका भी होगा,
पाषाण सरीख हिये से भी अश्रुवृस्टि होता होगा।
जब मरती है एक किसान
की आत्मा खुद को मारकर
पर नही पसीजती आंखे नेता ,मंत्री और सरकार की ।
पहुंच जाते हैं गिद्ध सा नोचने, खाने और
राजनीति करने लाशों पर,
विधवा विलाप चलता है टीवी,
प्रिन्ट मीडया और सोसल मीडया पर कुछ दिन,
बस दखती नही इन सब की असल वजह
और हमारी विफलताएं।
सब बदल रहा, रहन,सहन
और रीत रिवाज,
बस बदलती नहीं किसान की तकदीर
इस देश में।
बढ़ते खेती की लागत
बढ़ते खाद ,बीज और दवाईयों की कीमत
बस बढ़ती नहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषी उत्पाद की ।
खेल खेलते और बंदर बांट करते अधिकारी
और संयोजक,
सब्सििडीईज, कृषि यंत्र और कसान केर्डिट, कार्ड पर।
सरकारें बन जाती है लुभावने वादों, योजनाओं
और किसान कर्जमाफी के अहसानो पर..
घट रही उवर्रता, सूख रहे सिंचाई श्रोत।
खेत की जगह ले रहे इंडस्ट्रीज और कॉम्प्लेक्स,
बढ़ रही अमीरी और विलासिता।।
प्राकृतिक संसाधनो पर
सबका समान अधिकार है,
पर्यावरण संरक्षण का किसान ही आधार है।
प्राकृति का विगड़ रहा संतुलन
बढ़ रहे बाढ़ और सूखे,
पूरी दुनिया का भरण करने वाले देश मैं
लाखों सो जाते हैन्हैं रोज भूखे।
सोना, चांदी च्वन्प्राश मे,
कैल्सियम, मैग्नीशीयम,
जस्ता और जिन्क जैसे पोषण(न्यूटृीयंश)
नही मिलेंगे कैप्शूल और गोलियों ये भी आने वाले दिनों मे।
कुपोषण और बीमारी का प्रकोपहै,।
सबका पेट भरता किसान ही गरीब है।।
गर्मियां, सर्दियां सूखेऔर
बाढ़ बढ़ते ही जा रहे हैं,,
जैसे बढ़ती जा रही है हमारी तृणा
और विलासिता।
किसान खेत मे हल चलाता है,
तब हमारी कार्यों मैं आनज आता है।
किसान की दुर्दशा कर हम कहाँ जाएंगे,
हम और हमारी संताने भूखे मर जायेंगे।
8.अफसोस
अफसोस होगा तुम्हे, यह जान कर
कि ऐसे भी जीते हैं लोग बिना संसाधनों के,
भूखे और प्यासे भी।
मजबूर अपनी मजबूरियों पर,
रोते और बिलखते भी l
शहर से दूर गांवों में और
गाँव से दूर भी जंगलों, पहाड़ों और बिरानियों मे,
हर शहर का प्रवेश द्वार होती है झोपड़ियां ओर दबे कुचले लोग,
शहर के उजालों ओर चकाचोंध में भी दबे होते है कुछ अंधेरे और बेबस तबके,
हाँ शहरों में भी बसते हैं गरीब और कमजोर
देखा है मैंने और आपने भी
अफ़सोस होगा तुम्हे, यह जानकर भी,
कैसे इन पर रोटियां सेंकती हैं
सरकारे और प्रशाशन
अफसोस होगा तुम्हे ये जानकर कि जूझ रहे हैं लोग झोपड़ियों
और एक कमरे के मकानों के लिए भी,
जैसे तुम जूझ रहे हो थ्री बी एच के और आलीशान मकानों के लिए ।
अफ़सोस होगा तुम्हे यह जानकर कि
तुम्हारे रोज के खर्चे से कम है कईयों के महीने का खर्च
अफसोस होगा तुम्हेंयह जानकार
कि जितना तुम फेंक देते हो बर्बाद कर देते हो
उतना किसी की जरूरत है उतना मिलना किसी का हक है।
अफसोस होगा तुम्हे, यह देखकर भी
कि कैसे मैले, कुचले कपड़े पहने और जमीन पर बैठे पढ़ते है प्रायमरी स्कूलों में बच्चे जो कभी सुने ही नही कैडबरी, नेशले और मिल्क बार।
पर अफ़सोस है कि..अफसोस नही होगा तुम्हे
ये सब देखकर और जानकर भी अनजान बने रहने का,
अफसोस नही होगा तुम्हे, खुद को जरा सा न बदल पाने का,
अफसोस नही होगा किसी के जरा सा भी काम न आने का।
9.दंगापीड़ित
इनका भी था ,इक सपना ,
कि समाज से ,इन्हे भी प्यार मिले…
पर मिली इन्हे दुश्वारियाँ,
और ईर्ष्या के घाव मिले…
पल रहे हैं शिवरों में
जो देश के भविष्य हैं,
थी उम्मीद जिसे प्रकाश की,
उन्हें बदले में अंधकार मिले…
खुदगर्ज राजनीति के,
मासुम भी शिकार हुऎ…
क्या सोचेंगे ऎ राष्ट्रवाद,
क्या समाज के लि येजियें,
बस कुंठित ना हों समाज से,
कदम कहीं..जो डग..मगा.गयॆ…
10.ऐ जिन्दगी तू सहज या दुर्गम..
सही कहती थी अम्मा(मेरी मां)..
यूं बात-बात पर गुस्सा ठीक नहीं,
इक दिन तो बढनी से पीटा गया ..
अपनी मर्जी से जिन्दगी नहीं चलती,
झुकना और सहना पडता है..
ये जिम्मेदारन है,मजबूरन नहीं..
समझदारी है,कमजोरी नही
बाहर निकलोगे तब पता चलेगा,
दुनिया कैसी है..?ओर जिन्दगी क्या है?
कहीं ठौर नहीं मिलेगा ऐसी करनी पर..
तुम हमेशा सही कैसे रह सकते हो
और दूसरा गलत..
तुझे ग्लानि नहीं होती,अपनी गलतियों पर
कि तू झांकता ही नही अपने अन्दर…
पानी की तरह रहो, पत्थर की तरह अकडे मत रहो..सीख नहीं पावोगे जिन्दगी में..,
धीरे चलो पर लगातार..
प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा..
सरल होने पर चीजें सरल लगती हैं ,
क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम रटा दिया चन्द छणों में।
सहज ही नहीं दुर्गम भी है ऎ जिन्दगी..
कुछ सपने लिए इन आंखों में
उम्मीद-ए-चिराग जलाये हुए,
अब निकल पडे जीवन पथव्पर
जीवन उद्देश्य निभाने को…
कहीं काली सडक,कहीं पथरीली राहें
तो कहीं रेतों का समन्दर मिला..
कभी खूबसूरती का लिबाश ओढ आयी जिन्दगी तो कभी खौफनाक दर्द मिला..
बहु लोग मिले,बहु प्यार मिला
सुख-दुख से भरा संसार मिला
कभी मैं उसका (जिन्दगी का) तो कभी वो मेरी लगी,
कभी दिन ही दिन तो कभी खाली रात लगी..
फूलों के साथ-साथ हमने,
कांटों से भी दोस्ती कर ली..
पर ये सवाल आता रहा,
जहन मे हरदम…
ए जिन्दगी, तू सहज
या दुर्गम..