कविताएँ
कविताएँ
थक सी गई हैं
अब
बहुत बोलीं,बोलती रहीं
रहस्यों के पट खोलती रहीं
पर थक गयी हैं
कविताएँ
अब
प्रेम को व्यक्त किया
बयां किया
नफरतों के पीछे का प्यार
बेबाक होकर,
प्रेम में छिपे बनावटीपन
को भी खरोंचा
परत दर परत उघाड़ा
समाज मे छिपे
वहसीपन को
बुराइयों को खूब लताड़ा
सुधारा भी लोगों को
जो सुधरना चाहते थे
दरकते रिश्तों को भी
मजबूत नींव देने का
भरसक प्रयास किया
लोगों ने भावनाएँ नहीं समझी
आघात किया
कुठाराघात किया
बेच दिया कविताओं के
शब्द को
अक्षर-अक्षर में
बोई गयी भावनाओं को भी
नीलाम कर दिया सरेआम
ये जो लोग हैं ना
कभी नहीं सुधरेंगे
कविताएँ दुःखी होंगी
इनका कत्ल होगा
बाध्य होंगी कविताएँ
आत्महत्या को
कोई नहीं सुधरेगा
घुंटती रहेंगी कविताएँ
बिलखती रहेंगी भीतर ही भीतर
पाठकों की संवेदनशीलता
प्रश्नवाचक चिन्ह में कैद होंगी
दमघोंटू परिवेश में
सिसकेंगे अक्षर-अक्षर
विलाप करेंगे शब्द
और
परिस्थितियों को श्राप देंगी
हमारी सिसकती कविताएँ
जो पूरी तरह से
थक गयी हैं
परिवेश को
पवित्र करते करते ।
-✍️अनिल मिश्र