कलियुग
है कलियुग की तो सारी बात निराली।
भूले सब सतयुग द्वापर त्रैता वाली।।
भोर सुनहरी बेशक होती होगी पर,
भरी दोपहर भी अब तो होती है काली।
भाई-भाई को डसता,डरती बहनै-साली।
कब किसका ईमान डोल जाए देकर ताली?
राष्ट्र निर्माण की शपथ उठा बाटा घर बनवाते।
दीबारों मे भी छुपी हुई है अकूत सम्पत्ति काली।।
धन कुबेरों बनने की बस होड चल रही है।
धर्म,संस्कृति पर, है छाई घटा काली-काली।।