कला
कला
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कला बिना जग सूना लागे ,
मानव,पूंछहीन पशु के है समान ,
ज्ञान यदि पहचान दिलाता ,
कला ही है जो देता सम्मान।
कला से विकृति को ढक लो यारो ,
कला विरक्ति वैराग्य समान ।
कला ही है प्रेम का रूप अनोखा ,
कला को तुम मानो भगवान ।
कला हुनर है जीना सिखलाता ,
कलाकार का रखता मान ।
काम क्रोध को दूर ही रखता ,
अहंकारी को नहीं इसका ज्ञान ।
कला कोई भी दिल में बसा लो ,
गीत संगीत हो या चित्रकारी ज्ञान ।
कला अनेकों है इस जग में ,
जिसने परखा वो हुआ धनवान ।
कला से है ईश्वर का नाता ,
डमरू है शिव की पहचान ।
वीणा झंकृत करता सदा मन को ,
कला से ही होता प्रभु अंतर्ध्यान ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ११ /११/२०२२
मार्गशीर्ष ,कृष्ण पक्ष,तृतीया ,शुक्रवार
विक्रम संवत २०७९
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