कलयुग
एक दौर था जब भी सोते थे
ख़्वाब सुहाने आते थे,
ये वक़्त भी कैसा वक़्त है जिसमें,
नींद भी नहीं आती है।
एक दौर था जब सारे बच्चें
भोले थे सीधे-सच्चे थे,
ये कौन ज़माना है जिस में,
बचपन बच्चों के पास नहीं।
वो समय नजाने क्यों गुज़रा
जब सबके मन में धीरज था,
जब लोग सरल थे सादे थे,
जब लोग निभाते वादे थे।
ये कौन समय है मायावी
हर कोई दिखावा करता है,
हर कोई सबसे बेहतर है
हर कोई दावा करता है।
बच्चें यतीमख़ानों में ,
बूढ़े वृद्धाश्रम में रहते हैं
ये वक़्त ही तो वह युग है जिसको
सब कलयुग कहते हैं।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’