कलयुग
कलयुग ऐसा घोर है , होती असत्य जीत
चापलूस की मौज है , सीधा जाए बीत
अमीर होता धनी अब , पीकर निर्धन खून
वाह वाह रूपया की ,, मिले उसे नहि चून
राज महल से भवन है , गरीब उनके दास
आगे पीछे फिरे वो , झोपड़ जिनका वास
पुलिस प्रशासन धनिक के, मरे जहाँ निर्दोष
फंदा पड़ता उसी के , होय नहीं कुछ दोष
चक्कर अनेक करे पर , सुने नहीं फरियाद
कार्यवाही तन्त्र की , बढ़ा रही अवसाद