कलयुग का आरम्भ है।
जीवन में रिश्तों की डोर बड़ी नाजुक होती है।
इसकी प्रत्येक गांठ सबक देती है।।
उतार चढ़ाव तो जीवन में लगा ही रहता है।
हर कोई यही परिभाषा इसकी देता है।।
स्वार्थमयी जीवन हितकारी हुआ है।
बातों से मनुष्य विषधारी हुआ है।।
ये तो कलयुग का आरम्भ है।
प्रथ्वी पर जैसे ईश्वर का प्रतिबंध है।।
पापों से वसुंधरा भी डगमगा रही है।
कैसी थी कैसी हो गई,सिसका रही है।।
मनुष्य स्वयं को ईश्वर कह रहा है।
अपने धन पर आपार घमंड कर रहा है।।
लोक लज्जा में मनुष्यता भरमाई है।
इन्सानियत खत्म होने पर आई है।।
मनुष्य केवल धन दौलत के निर्माण में लगा है।
हर ह्रदय जैसे पाषाण हो चुका है।।
जीवन की यह कैसी परिभाषा है।
स्वार्थ ही बस सबकी ह्रदय की अभिलाषा है।।
अब उषा में ना सुबह होती है।
सूर्य किरण अब ना मनुष्य की आंख खोलती है।।
मोक्ष को कोई जतन ना करता है।
अब ना कोई सत्य की खोज को निकलता है।।
मैं सर्वोपरी हूं यही सबको लगता है।
अब ना गुरु शिष्य का रिश्ता मिलता है।।
ईश्वर भी निद्रा में जैसे गए है।
कितना भी पुकारो अब ना सुनते है।।
इस आरंभ का क्या अंत हो कोई क्या जाने।
कहना सुनना सब व्यर्थ हुआ मनुष्य केवल अपनी माने।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ