कलम
कलम भी चलने को बेताब है, और लब्ज होंठों से फिसलने को l
अब तो कागज़ का पन्ना भी थम सा गया है, कलम की नोक को चूमने को l
अल्फाज़ मेरे चारो और बिखरे पड़े है।
और मैं गुम हू, किसी मशहूर कवि की कविताओ में…!
मासूम से चेहरे पर फिक्र की ये लकीरें और आँखो तले दबी हुई ये खामोशी , तुम्हें बेपरवाह बना जाती है ।