कलम घिसाई ग़ज़ल के रूप में
वाचिक मापनी
2222 22 22 प्रत्येक पंक्ति 16 मात्रिक
पर कलम घिसाई
समान्त –अर
पदान्त ―लगता है।
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समान्तर धुन― मैं पल दो पल का शायर हूँ।
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मतले 10
हाथों में खंजर लगता है।
बिगड़ा हुआ मंजर लगता है। 1
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उजड़ा उजड़ा घर लगता है।
कुछ कहने में डर लगता है। 2
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हर नेता डायर लगता है।
पूरा बाज़ीगर लगता है। 3
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हर घर में पत्थर लगता है।
हर दिल में सागर लगता है। 4
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आदम अब जोकर लगता है।
दुनियाँ का नोकर लगता है। 5
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चौपाल यह हटकर लगता है।
भगवान बराबर लगता है। 6
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खाली सा भीतर लगता है।
मेला पर बाहर लगता है।। 7
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आंसू भी जेवर लगता है।
भारी हर तेवर लगता है। 8
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किस्मत का चक्कर लगता है।
दुखड़ा भी जमकर लगता है। 9
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जीवन अब दूभर लगता है।
मरना भी कमतर लगता है। 10
अशआर आठ
जीता हैं डर के साये में,
हर बन्दा कायर लगता है। 11
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बैशाखी से चलने वाला।
मानो जोरावर लगता है। 12
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आरक्षण के दम पर देखो।
गीदड़ भी नाहर लगता है। 13
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अब नज़र हटा मत नज़र लगा।
यह तीर जिगर पर लगता है। 14
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नीले फीते के चक्कर में।
नीला ही मंजर लगता है। 15
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हाथ नचाकर भाषण देता।
मुझको तो बन्दर लगता है। 16
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जूते खाकर भी खुश रहता।
क्या मस्त कलंदर लगता है। 17
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काला कानून बनाता जो।
वो सबको हिटलर लगता है। 18
मक़्त ए 2
काले कानून के बनने से।
‘मधु’देश भी बेघर लगता है। 19
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कुछ लोगो को ये ‘मधु’ भारत।
खाला का ही घर लगता है। 20
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मधुसूदन गौतम