कलम घिसाई। बहर 212 2122 212 2122
कलम घिसाई
काफिया—आन
रदीफ़–सा है।
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रीत सब को निभानी,इश्क़ कुरबान सा है।
प्यार जिसका ख़ुदा है ,यार रहमान सा है।
याद आते है लम्हें, साथ तेरे बिताए।
आज तक याद मुझको, साथ वरदान सा है।
छोड़ हमको गये तुम, याद कर खूब रोये।
पर गिला भी नही है, वक्त बईमान सा है।
पेट भरता नही है,यार बातों से तेरी ।
ताज़गी आती है बस,प्रेम जलपान सा है।
ये तड़प प्रेम की है, जान इतना ही जो लो,
एक दिन ये मिटेंगी, काम आसान सा है।
काम होता है कैसा,कौन समझे किसी को,
काम मेरे लिए तो , एक ईमान सा है।
नींद आती कहाँ है, इश्क बीमार है जो।
रात दिन एक उल्फ़त, जिस्म बेजान सा है।
आग का एक दरिया, रूह में जल रहा है।
ख़ाक जिसमें तमन्ना , खत्म तूफ़ान सा है।
तेरी आँखों के नग़मे, बज़्म को जीत लेंगे।
शोर दिल में मचाये , कुछ घमासान सा है।
दर्द है यार मेरा , छोड़ता ही कहाँ है।
कर्ज बाक़ी हो जैसे,एक अहसान सा है।
जन्म ‘मधु’ दूसरा ले ,कर्ज जब ही चुकेगा।
साथ मेरे रहेगा, ख़ास सामान सा है।
मधुसुदन गौतम