कलम का कमाल
अपनी खुशी लिखने में
ना कि दरबारों में दिखने में।
उठाई है कलम बांचने में
ना कि बाजारों में बिकने में।।
तूफानी इरादे चलने में
ना कि थोड़ा भी रुकने में।
ऊंचा उठे सर की शान
ना सत्ता सम्मुख झुकने में।।
हर कोशिश, ख्वाहिश यही
सर, कलम तो ऊंचे ही रहे।
चाहे कितनी गीदड़ भभकिया
सर कलम की मिलती रहे।।
ठानी सर कलम ऊंचा रखने
फिर क्यों न सब हंसते सहे।
बंद मुंह कुछ कह न पाए
फिर क्यों कलम कहते रहे।।
शख्स गुलाम बना सकते
शख्सियत को कभी नहीं।
बिकते बहुत थोक में
असलियत में सभी नहीं।।
जब रोकी कलम डंडे़ से
क्या चल पड़ी तभी नहीं।
कलम वहम में रुक जाए
वक्त ऐसा आया अभी नहीं।।
~०~
मौलिक और स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या:०२ -मई २०२४-©जीवनसवारो