कलम और रोशनाई की यादें
तख्तियों पर शब्द उकेरे हैं हमने रोशनाई से
बहुत लिखा है हमने मन लगाकर रोशनाई से
मगर अब ना वो तख्ती है ना ही रोशनाई है
गर्व होता था सबको अपनी-अपनी रोशनाई पे
बहुत याद आते हैं लम्हे जब वे खत्त लिखते थे
नहीं एक बार दिन में सभी दो वक्त लिखते थे
कैसे पौंछा किया करते उसे मुल्तानी मिट्टी से
निशां बाकि न रह पाए कहीं उस रोशनाई के
हाथ में तख्तियाँ लेकर विद्यालय आते-जाते थे
जंग हो जाती आपस में तख्तियां यूँ लहराते थे
तख्ती हथियार हो जाती या दो फाड़ हो जाती
हँसी आती है किस्से याद कर उस रोशनाई के
हाथों पर लगना लाजमी था अरे रोशनाई का
कभी निक्कर या कुर्ता स्याह कर देते भाई का
बड़ा आता मजा था जब मुँह भी स्याह होते थे
यूँ भी प्रयोग करते थे हँसी में उस रोशनाई का
“V9द” याद है तुमको कलम थी सरकंडे की
नहीं होती बना लेते अध्यापक के ही डंडे की
अध्यापक खुद बनाते थे खत्त छील सरकंडा
कलम होती सहेली थी अरे उस रोशनाई की
स्वरचित
V9द चौहान