कर रहे जब से वो नेकियाँ आजकल
कर रहे जब से वो नेकियाँ आजकल
दे रहे सब उन्हें धमकियाँ आजकल
हो रहीं हमसे क्यों ग़ल्तियाँ आजकल
देखते लोग बारीकियाँ आजकल
बारिशें फूल की कर रहे लोग जो
वो चुभाने लगे बर्छियाँ आजकल
भीड़ में भी रहे हैं अकेले सदा
शामे-ग़म में भी ख़ामोशियाँ आजकल
दूर जाने लगे हैं उजाले अभी
आ रहीं पास तारीकियाँ आजकल
जब से परदेस वो हैं गये छोड़कर
तब से गायब हुयीं शोख़ियाँ आजकल
कर रहे हैं ग़रीबों पे ये ज़ुल्म क्यों
दाग़ से हैं भरी वर्दियाँ आजकल
सब हैं ख़ामोश ताले ज़ुबां पर लगे
खो गयीं फ़िर कहाँ चाबियाँ आजकल
आज ‘आनन्द’ से जो चुराते नज़र
सब ही हारे हैं वो बाज़ियाँ आजकल
– डॉ आनन्द किशोर