कर्ण की पराजय
कुरुक्षेत्र के युद्ध में
चलने वाला मेरा हर तीर
तीर नहीं प्रश्न था मां
और वह प्रश्न
अर्जुन से नहीं
समय से नहीं
तुमसे नहीं
मेरा स्वयं से था
हर तीर के साथ
जर्जर हो रहा था मेरा
दानवीर कर्ण का अभिमान
जो हार बैठा था स्वयं को
अपने ही अहम से
परीक्षा की इस घड़ि में
मैं नहीं संजो पाया था
स्वयं को अर्जुन से श्रेष्ठ
धनुर्धर सिद्ध करने का मोह
और मां
मैं भूला नहीं था
कल रात
जब तुम
व्यथा से लदी आई थी
मेरे शिविर में
मैं नहीं दे पाया था तुम्हें दान
मुक्त हस्त से
हार तो हो गई थी मेरी उसी एक क्षण
और सच तो यह है
अर्जुन के तीरों ने रख ली लाज
मेरे दानवीर होने के अभिमान की
मैं द्वंद्वों में जकड़ा गया था मां
मैं चाहता था
क्षमा करना
स्नेह करना
ईर्ष्या को छोड़
उदार होना
और चाहता था
सहलाये रखूं
अहम् को भी
गुरुवर का श्राप तो बहाना था
दरअसल
मैं
हारा स्वयं से था।
शशि महाजन – लेखिका