कर्ण -एक अप्रतिम योद्धा
कर्ण एक अप्रतिम योद्धा
अति दानवीर व शीलवान
जिसे नियति ने सदा छला
स्वर्णिम इतिहास वो युग प्रधान।
सूर्य पुत्र कौन्तेय था वह
सूत पुत्र बन गया ।
देयता ही धर्म था
मातृत्व राधा को दिया।
उनके पय से तृप्त हो
धन्य राधा को किया
वो बनी मां वीर की
नाम राधेय हुआ।
नियति से प्रतिक्षण लड़ा वो
क्या अदम्य उत्साह था ?
मनोबल की थाह न थी
अति सौम्य शीलवान था।
हां ये सच है तेज को
काल क्या छल पायेगा
शुष्क मरूभूमि में भी
वो पुष्प बन खिल जायेगा।
बस यूं ही तपता हुआ
राधेय था पारस बना ।
जो भी आया पास उसके
सबका ही है हित सधा ।
पञ्च पुत्र मां का गौरव
कुन्ती को उसने दिया ।
इन्द्र का छल जानकर भी
कवच कुण्डल दे दिया।
शिष्य बन परशुराम का
सब निपुणता गुन रहा
भाग्य की प्रतिकूलता में
अनुकूलता था बुन रहा।
किन्तु वो एक भूल थी
जिसने उससे सब छला
भविष्य का उपक्रम जो था
बन अतीत ही सो गया।
मन में जो पीड़ा घनी थी
बस वही विष बन गयी
सिद्ध करने वो स्वयं को
हस्तिनापुर आ गया ।
उपेक्षा की ग्लानि से थक
संग दुर्योधन हुआ ।
विश्व जो वर सकता था
भूखण्ड का ऋणी हुआ।
एक ऋण था भूमि का
दूसरा ऋण मित्रता
न उऋण हो पाया वो
भुगतान ही करता रहा।
बस इन्हीं चूक से हार गया
अप्रतिम वीर वो महाप्राण।
दुर्योधन सम मित्र वरा
जिसने उससे हर लिए प्राण।
शकुनि के कुटिल विचारों पर
ऋणी विवश हो मौन रहा
रोपित अनीति कुविचारों से
कर्ण एक नहीं कई बार मरा ।
चूक कर्ण के जीवन की
हमको ये सीख सिखाती है
मत पीड़ा को मन में रोपों
ये विध्वंस कराती है।
हे मनुज पुत्र तुम महाप्राण
निज लक्ष्यों पर हो संधान
पर साध्य वरण तत्परता में
साधन शुचिता भी रहे ध्यान।