‘करुणा’
‘करुणा’
करुणा रोये होकरके करुणित,
द्रवित हृदय से दया बरसती।
घनीभूत हो उठती जब पीड़ा,
मर्मस्पर्शी मरहम को है तरसती।
देख विकल आकुल हो उठता,
हर मानव हृदय भी अनजाना।
किस विधि हरूँ ताप दुखित का,
बुनने लगता है ताना-बाना।
स्वार्थ विचरता नहीं लगे लुप्त सा,
बस करूँ उपाय मैं उसके दुख का।
भाव प्रसंशा का भी लगे सुप्त सा,
रंग बदल दूँ दुखित के मुख का।
हो वास हर प्राणी के हृदय में,
अनोखी करुणा की करुण कहानी।
पर उपकार से रहे सदा ही पूरित,
महिमा जाय न इसकी बखानी।
भरदो भगवन मुझ में भी कुछ ऐसा,
कष्ट हर सकूँ मैं दुखित जगत का।
कर पाऊँ प्रसन्नचित किसी हृदय को,
प्रतिपल करती रहूँ काम पर हित का।
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