मर्द रहा
जाहिल बे-मुरव्वत दश्त-ए-नवर्द रहा
युहीं कहाँ मआसिर से नज़री-फ़र्द रहा
खौफ कैसा उसे कपड़े छीन जाने पे
जो इब्तिदा से हि मुजर्रद-ए-मर्द रहा
मुझको तो हारना हि था आख़िर में
अपने आप का मैं उम्दा हम-नबर्द रहा
यानी मिरे छाँव में राहत कोई मोल नहीं
यानी मैं हर इक मौसम बड़ा बे-दर्द रहा
इक हसीं लड़की के पीछे था बेहाल मैं
फ़ुज़ूल में थोड़ी ऐसा वैसा कूचा-गर्द रहा
मुझको पता नहीं शादाब ए राज कुनु
मिरा जीस्त इस जहां सर्द-ओ-गर्म रहा
@कुनु