करमजली
करमजली
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तेरी जमीं, बर्बाद वतन है ,
मानवता है कराह रहा ।
पाँव भटक रहे,अब तो वहां पर ,
देवभूमि जो सदियों से रहा।
करमजली, तेरे दांत नुकीले ,
मानव रक्त से है सना पड़ा ।
श्वेत परिधान में, लिपटी रहती ,
कहती करूँ मैं सबका भला।
गिरगिट सा तू , रंग बदलती,
अबस जीभ लपलपाती वैसी।
छला है अपने, प्रियतम दिल को,
सबको पता है करनी कैसी।
इज्जत गिरवी, होती है निशिदिन ,
अबला बनी जो तेरी सखी सहेली।
चीख पुकार उनकी,सुनती क्यूँ नहीं,
अनसुलझी सी है जीवन की पहेली।
भृकुटी भाल, भभूत लगाकर ,
साधक यती संतो को छलती।
होंठ तेरे, कंपकपाते क्यूँ नहीं ,
चामुंडा जब उच्चारण करती ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०६ /०३/२०२२
फाल्गुन ,शुक्ल पक्ष ,चतुर्थी ,रविवार ।
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201