करनी और भरनी
आज पुराने घर के आँगन में अकेली निस्सहाय बैठी शगुन के हृदय में दुख का समंदर ठाठें मार रहा है,तूफानी लहरें उठ उठ कर दिल की दीवारों से टकरा लहूलुहान किए दे रही हैं। आज से ठीक दो महीने पहले वह पति का वार्षिक संस्कार करने के बाद पचहत्तर वर्षीय अपनी छोटी बहन के आग्रह पर उसके घर चली आई थी। दोनों बेटे मय परिवार शहर के संभ्रांत क्षेत्रों मे सलीके से सजे आलीशान घरों में रहते हैं,एक ने भी नहीं कहा कि माँ अब अकेली यहाँ गाँव में कैसे रहेगी मेरे साथ चल।फिर सोचा कोई बात नहीं बच्चे हैं,अब तो इन्हीं के साथ रहना है,कोई बेगाने तो हैं नहीं कि फार्मेलिटी करें।इन्हीं की बेहतरीन परवरिश के लिए तो सबसे झगड़ा कर किनारा कर लिया था।
बेटों को फोन लग ही नही पा रहा था,बहन का पति स्वयं ही गाड़ी में सामान रख शगुन को उसके बड़े बेटे के यहाँ छोड़ने चल पड़ा क्योंकि अगले दिन बहन व उसके पति दोनों को आवश्यक कार्यवश बाहर गाँव जाना था।
दरवाजे पर पहुँच घंटी बजाई,दरवाजा तो नहीं खुला पर अंदर से बेटे की आवाज आई ‘हमने कहा था ले जाने को ? छोड़ने चले आए!
जहाँ से ले गए थे वहीं छोड़ दो।
अब हम इन्हें सँभालें या अपने बच्चों का जीवन सँवारें…..
अपर्णा थपलियाल”रानू”
०५..०६.२०१७