कम्बखत ख्याल
क्या होगा? कब होगा?
कैसे होगा?
इस कशमश में
रात गुज़र रही है…
हर ख़्वाब…
बिखर रहा हैं
बस निराशा ही
गले लग रही है..
अब तो खुद को,
मैं निकम्मा लगता हूँ
शायद पर हूँ नहीं,
ये में जानता हूँ…
कब मेहनत रंग लाएगी,
कब किस्मत पलटेगी
बस इन्हीं सवालों में…
ये बची हुई रात कटेगी…
कब तक लोगों में बैठूं
झूठी मुस्कान लिए
कब तक खुद को..
दिलाशा दिलाऊँ..
मेरे तो कहें लोग
शब्द नहीं समझते
किसे अपने मन
की व्यथा सुनाऊँ…
शाम तो दोस्तों में
बीत जाती है….
तब ऐसा कोई…
ख़्याल नही आता…
लेकिन रात के अंधेरे में
ये दिमाग से भगाने
पर भी नही जाता…