कमाई और जकात
कुछ परिन्दे लौट कर आये हैं बाग में
यहां की खामोशी भी यही है और बात भी,
आज बादल बिना बरसे ही निकल गये
इन आँखों का ज़र्द भी तुम हो बरसात भी,
बुलन्दी पर तन्हा खड़ा ये जाना मैंने
मेरी जीत भी तुम हो और मात भी,
मैं क्या रखूँ और क्या दूँ किसी को
मेरी तो कमाई भी तुम थे जकात भी,