कभी हसरतें थी कि, तेरे शहर में मेरा मकां होगा
कभी हसरतें थी कि, तेरे शहर में मेरा मकां होगा,
पर किसे पता था कि वो बस ख़्वाहिशों का धुंआ होगा।
आवाजें दी तूने जिन गलियों से, ना जाने कितनी बार,
आज ढूँढू भी तो जाने तू अब कहाँ होगा।
मेरे दिल का एक टुकड़ा आज भी वहाँ होगा,
तेरी साँसों संग दफ़्न तेरा हर निशाँ जहां होगा।
कभी खिड़कियों पर मुस्कुराती थी सपनों की जो किरणें,
आज बस धूल की परतों और वीरानगी से सामना होगा।
वो एहसास जो तन्हा हाथों को भी साथ से भर देते थे कभी,
उनकी गुमशुदगी का सबब, खामोशी में बयां होगा।
कभी चिट्ठियां अपनेपन की आती थी जिस पते से,
वहाँ बेगानी नज़रों में सवालों का कारवां होगा।
कभी आवाजें सुनने को हवाएं तरसती थी जहां,
मेरे ठहरे क़दमों को अनसुना करता एक सारा जहां होगा।